हर बार डायरी पर ज़मी धूल झाड़ते वक़्त दिख जाती हैं
कुछ अनछपी कवितायेँ...
पन्नों के मुड़े हुए कोरों के बीच से झांकते हैं कुछ शब्द
जैसे पर्दों के पीछे से देखती हैं बिन ब्याही लड़कियां
न छपने वाली कवितायेँ
मुस्कुराती रहती हैं लाल-लाल
पीले पड़ते पन्नों पर
गुनगुनाती रहती हैं बर्मन की कोई धुन
अपने मांझी की याद में
कभी उनमे से निकल कर कोई
बन जाती है किसी का प्रेम गीत
तब ये कवितायेँ
सुल्झातीं हैं अपनी लटें
इतराती हैं
आँखों से मुस्कुराती हैं ...
कुछ कवितायेँ कभी नहीं छपतीं
और याद रह जाती हैं..
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अब तक की लगभग सबसे बेजोड़ कविता...
ReplyDeleteजो न छपकर भी गजब का छाप छोड़ गई...